सीमान्त वर्ग में शिक्षा के स्वरूप का अध्ययन
श्रीमती रजनी
पी-एच.डी. (शोधकत्र्री), शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
’ब्वततमेचवदकपदह ।नजीवत म्.उंपसरू तंरदपे49/हउंपसण्बवउ
शोध सारांशरू
समाज विभिन्न धर्म, जाति, संस्कृति, सम्प्रदाय के लोगों के समूह से मिलकर बना है। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समानता प्रदान की गई है। परन्तु आज भी समाज में कई वर्गों को असमानता का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें समाज के केन्द्र से हाशिये की तरफ धकेला जा रहा है। जिसे सीमांत वर्ग के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह एक ऐसा वर्ग है जो भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान व गरिमा से विपुल है। प्रस्तुत पेपर के माध्यम से यह समझने का प्रयास किया जाएगा कि सीमांत वर्ग में किन-किन व्यक्तियों एवं समूहों को वर्गीकृत किया जाता है? इनके शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन के क्या कारण है? एवं सरकार द्वारा सीमांत वर्ग के शैक्षणिक सुधार के क्या-क्या कदम उठाए गए हैं?
पारिभाषिक शब्दावली रू सीमान्त वर्ग, समाज, शिक्षा।
हम कापियों के जिन पन्नों पर लिखते हैं उनकी बाईं ओर खाली जगह होती है, जहाँ आमतौर पर लिखा नहीं जाता है। उसे पन्ने का हाशिया कहा जाता है। कुछ ऐसा ही समाज में भी होता है। हाशियाई का अर्थ होता है कि जिसे किनारे या हाशिये पर धकेल दिया गया हो। ऐसे में वह व्यक्ति चीजों के केन्द्र में नहीं रहता। एम.एन. श्री निवास के अनुसार हाशियाकरण, जातिवाद व वर्ण व्यवस्था से जुड़ा है। उनका मानना है कि उच्च व्यवसायों में आज भी उच्च जातियों का वर्चस्व है।
पहले निम्न जातियों को संस्कृतिकरण (खान-पान, रहन-सहन, पहनावा व बोलचाल आदि में उच्च जातियों की नकल करना) करने पर उच्च जातियों द्वारा दंडित किया जाता था, जबकि वे स्वयं पश्चिम की नकल कर रहे थे। परन्तु अब संस्कृतिकरण के कारण निम्न जातियों में भी उध्र्व गतिशीलता आई है।
लेखक का मानना है कि अब जातियों ने चार भूमिकाएँ अपना ली हैं- (1) सुधारवादी, (2) परोपकारवादी, (3) शैक्षिक, (4) राजनीतिक। अब जाति पर आधारित समाचार-पत्र, पत्रिकाएं जातियों विशेष के हितों की रक्षा करने लगे हैं। शहरों में जाति के आधार पर हाॅस्टल, बैंक, अस्पताल, रेस्टोरेंट हाउसिंग सोसाइटी आदि निर्मित होने लगे हैं। अब राजनीति में भी जाति ने अपनी जगह बना ली है। नये-नये मौकों ने जातीय चेतना व अन्तः जातीय प्रतिस्पर्धा को बढ़ाया है। लेकिन लेखक का मानना है कि इन कार्यक्रमों में उच्च जातियों का ही भला किया, गरीब व छोटी जातियों का नहीं। अब समाज में नये प्रकार का स्तरीकरण बन गया है, जो जाति व वर्ग के आधार पर स्तरित है।
हाशियाकरण में सबसे ज्यादा आबादी आदिवासी समुदायों की है। आदिवासी शब्द का अर्थ होता है, ‘‘मूल निवासी’’। ये ऐसे समुदाय है जो जंगल के साथ जीते आए हैं ओर आज भी उसी तरह जी रहे हैं। भारत की जनसंख्या की लगभग 8ः आबादी आदिवासियों की है। जिसमें अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को शामिल किया गया है। इन जातियों को सदियों से ही समाज में भेदभाव व अस्पृश्यता का सामना करना पड़ रहा है। एन.सी.ई.आर.टी. के द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘‘गांधी आॅन एजुकेशन’’ में अनुसूचित जाति के लोगों के सन्दर्भ में विचार व्यक्त किए गए हैं। सामाजिक आन्दोलनों के इतिहास में गांधी ही ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सर्वप्रथम अस्पृश्यता को जड़ से उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठाया। महात्मा गांधी अस्पृश्यता को हिन्दुत्व के नाम पर धब्बा मानते थे। बचपन से ही उनके अन्दर यह भावना पनप चुकी थी। उन्होंने अपने आत्मकथन में वर्णन किया है कि वह ऐसे अनेकों हिन्दू रीति-रिवाजों को पसन्द नहीं करते जो भारतीय समाज में ऊँच-नीच को बढ़ावा देते हैं। गांधी जी लिखते हैं ‘‘मैं अस्पृश्यता को हिन्दुत्व के नाम पर धब्बा मानता हूँ।’’ यह देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ कि दलित लोग कितनी दयनीय दशा में रह रहे हैं। गांधी जी लिखते हैं- अछूत सभ्य समाज का बाहरी हिस्सा है। उनसे मनुष्य जैसा व्यवहार नहीं किया जाता। इसी आधार पर उनके साथियों द्वारा उन्हें जाति से बाहर कर धरातल में धकेल दिया जाता है। सामाजिक रूप से वे कोढ़ी है। आर्थिक रूप से वे गुलामों से भी बदतर है। धार्मिक रूप से उन्हें मन्दिरों में प्रवेश करने से मना किया जाता है। उन्हें सार्वजनिक पार्कों का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता है, फिर भी आश्चर्य है कि वे अपने अस्तित्व का जैसे-तैसे निर्वाह करने के काबिल हैं।
आदिवासी समुदाय के अलावा अल्पसंख्यक समुदाय भी हाशियाकरण से ग्रसित है। अल्पसंख्यक शब्द आमतौर पर ऐसे समुदायों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो संख्या की दृष्टि से बाकी आबादी के मुकाबले बहुत कम हैं लेकिन यह अवधारणा केवल संख्या के सवाल तक ही सीमित नहीं है। इसमें न केवल सत्ता और संसाधनों तक पहुंच के मुद्दे जुड़े हुए हैं, बल्कि इसके सामाजिक व सांस्कृतिक आयाम भी होते हैं। इस सन्दर्भ में मोतीलाल (2001) का कहना है कि भारतीय संविधान इस बात को मानता है कि बहुसंख्यक समुदाय की संस्कृति, समाज और सरकार की अभिव्यक्ति को प्रभावित कर सकती है। ऐसी सूरत में छोटा आकार घाटे की बात साबित हो सकती है और संभव है कि छोटे समुदाय हाशिये पर खिसकते चले जाए। ऐसे में अल्पसंख्यक समुदायों को बहुसंख्यक समुदाय के सांस्कृतिक वर्चस्व की आशंका से बचाने के लिए सुरक्षात्मक प्रावधानों की जरूरत पड़ती है। ये प्रावधान उन्हें भेदभाव और नुकसान की आशंका से भी बचाते हैं।
इन समुदायों के अतिरिक्त मुसलमानों को भी हाशियाई समुदाय माना जाता है क्योंकि दूसरे समुदायों के मुकाबले उन्हें सामाजिक-आर्थिक विकास के उतने लाभ नहीं मिले हैं।
इस बात पर ध्यान देते हुए कि मुसलमान विकास के विभिन्न संकेतकों पर पिछड़े हुए हैं, सरकार ने 2005 में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जो न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में बनाई गई। इस समिति ने भारत में मुस्लिम समुदाय की सामाजिकता, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का जायज़ा लिया। रिपोर्ट में इस समुदाय का विस्तार से अध्ययन किया गया है। समिति की रिपोर्ट से पता चला कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक संकेतकों के हिसाब से मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति जैसे अन्य हाशियाई समुदायों से मिलती-जुलती है।
किशोरी राज (2000) का कहना है कि मुसलमानों के आर्थिक व सामाजिक हाशियाकरण के कई पहलू हैं। दूसरे अल्पसंख्यकों की तरह मुसलमानों के भी कई रीति-रिवाज़ और व्यवहार मुख्यधारा के मुकाबले काफ़ी अलग है। सब नहीं, लेकिन कुछ मुलसमानों में बुर्र्कां, लंबी दाढ़ी और फ़ैज टोपी का चलन दिखाई देता है। बहुत सारे लोग सभी मुसलमानों को इन्हीं निशानियों से पहचानने की कोशिश करते हैं। इसी कारण अक्सर उन्हें अलग नज़्ार से देखा जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि वे ‘‘हम बाकी लोगो’’ जैसे नहीं है। अक्सर यही सोच उनके साथ गलत व्यवहार करने और भेदभाव का बहाना बन जाती है। किशोरी राज (2000) के अनुसार मुसलमानों के इसी सामाजिक हाशियाकरण के कारण कुछ स्थितियों में वे जिन इलाको में पहले से रहते आए हैं, वहाँ से निकलने लगे हैं। जिससे अक्सर उनका ‘घेटोआइजेशन’ ;ळीमजीवपेंजपवदद्ध होने लगता है। कभी-कभी यही पूर्वाग्रह घृणा और हिंसा को जन्म देता है।
अतः हाशियाकरण का ऐतिहासिक प्रारूप अनुभव करने के बाद यह कहा जा सकता है कि हाशियाकरण का संबंध अभाव, पूर्वाग्रह और शक्तिहीनता के अहसास से जुड़ा है। हमारे देश में कई और भी हाशियाई समुदाय हैं, दलित भी इस तरह का एक समुदाय है। हाशियाकरण से कमजोर सामाजिक हैसियत ही नहीं पैदा होती, बल्कि शिक्षा व अन्य संसाधनों तक पहुँच भी बराबर नहीं मिल पाती। आज भी शिक्षा का स्वरूप जातिगत भेदभावों तथा विषमताओं को दूर करने के बदले विषमताएं फैला रहा हैं।
जैसा कि रितुबाला द्वारा 3 सितम्बर 2000 को दैनिक समाचार पत्र जनसत्ता में प्रकाशित लेख पूर्वग्रहों के पाठ में जातिवाद प्रभाव को स्पष्ट करने की बात दिखाई देती है। लेखिका का मानना है कि पाठ्य पुस्तकों में अनुसूचित जाति/जनजाति के किसी पात्र को शामिल नहीं किया जाता और न ही उस पर कोई दृश्य या चित्र होता है। यदि चित्र या दृश्य दे भी रखा हो तो उसका पूर्ण वर्णन नहीं दिया जाता। लेखिका का मानना है कि उच्च वर्ग का पुस्तकों के निर्माण में हाथ होने से निम्न जाति के पात्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। जैसे लेखिका का मानना है कि दूसरी कक्षा की पुस्तकों में केवल आठ चित्र अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें से 4 चित्र केवल अम्बेडकर साहब के हैं और 4 अन्य अनुसूचित जाति के हैं। अतः लेखिका का विश्वास है कि यदि हमें अनुसूचित जातियों को आगे लाना है तो सबसे पहले उनकी साक्षरता दर को बढ़ाना होगा।
धनंजय कीर ने ‘डाॅ. अम्बेडकर: लाइफ एंड मिशन’ किताब में अनुसूचित जाति की स्थिति के सन्दर्भ में डाॅ. अम्बेडकर का उदाहरण देते हुए बताया कि डाॅ. अम्बेडकर ने स्वयं व्यक्तिगत रूप से आरक्षण की पृष्ठभूमि में व्याप्त समस्याओं का आजीवन सामना किया था। सवर्ण समाज के तिरस्कार व उत्पीड़न से वे भलीभाँति परिचित थे कि कैसे पानी बिना प्यासा रहना पड़ता था, स्कूल के ‘श्यामपट्ट’ को छूना निषिद्ध था तथा दलित छात्रों के मुँह में ‘कुप्पी’ से पानी डाला जाता था। सैकड़ों अछूत माँ- बहनें कुएँ के पास पानी के बर्तन लेकर दिन भर खड़ी रहती थी कि कोई दयालु व्यक्ति आए और उनके खाली बर्तनों में पानी डाले। सैकड़ों अछूत महिलाएँ सुबह से शाम तक खड़ी-खड़ी थक जाती थीं, अधिकांशतः वे खाली हाथ ही लौट जाती थी और घर आकर प्यास से तड़पते हुए बच्चों की तरफ देखती और बेवस हो जाती थीं। न केवल विद्यमान संस्थाओं में चारों तरफ छुआछूत का यह अभिशाप विद्यमान था, बल्कि समाज के उच्च लोगों ने अछूतों का हर तरफ से बहिष्कार किया हुआ था।
दलित नेता बाबू जगजीवन राम ने ‘‘जातिवाद और हरिजन समस्या’’ में अनुसूचित जाति को प्राप्त आरक्षण के सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त किया है कि उन्होंने सरकार द्वारा प्रदान किये गए आरक्षण को नाममात्र के लिए लागू माना है और वह भी निम्न वर्ग के पदों के लिए। एस. नेगी ने एक्सक्लुसिव आॅफ क्रीमी लेयर कन्सटीट्यूशनल रिक्वाॅयरमेन्ट एस.सी. प्रोम्पशनल बैनिफिट टू एस.सी. एस.टी. ;म्गबसनेपअम व िब्वदेजपजनजपवदंस त्मुनपतमउमदज रू ैब् च्तवउवजपवदंस ठमदमपिज जव ैब्ए ैज्द्ध आरक्षण में क्रीमी लेयर के मुद्दों को उठाया है। वे कहते हैं कि आरक्षण नीतियों की इस रूपरेखा में आलोचना की जाती है कि वे स्वयं में असमानता को उत्पन्न करती है, क्योंकि वे सम्पन्न वर्गों ‘क्रीमी लेयर’ को ही अधिक शैक्षिक अवसर उपलब्ध करवाती है बजाय उनको जो इन जातियों के अधिक गरीब और पिछड़े वर्ग के हैं। अतः यह कहा जाता है कि अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण ने स्वयं इन जातियों के समूहों में असमानता उत्पन्न की है। आरक्षण के लाभ प्राप्त समूह की दूसरी पीढ़ी भी आरक्षण का लाभ प्राप्त कर मध्यम वर्ग से उच्च वर्ग की स्थिति को प्राप्त कर रही हैं। जबकि इन जातियों के बहुत से अधिक पिछड़े गरीब उपजाति समूहों की प्रथम पीढ़ी भी आरक्षण का लाभ प्राप्त नहीं कर सकी है।
मधुमिता बन्धोपाध्याय ने अपने पेपर एजुकेशन आॅफ मारजिनलाइन्ड ग्रुप इन इण्डिया फ्राॅम द परस्पेक्टिव आॅफ सोशल जस्टिस ;म्कनबंजपवद व िडंतहपदंसप्रमक ळतवनच पद प्दकपं रू थ्तवउ जीम च्मतेचमबजपअम व िैवबपंस श्रनेजपबमद्ध में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की शिक्षा से सम्बन्धित अनेक मुद्दे उठाये हैं।
इसमें उन्होंने बताया है कि सरकारी नीतियों के प्रावधान के बावजूद इन नीतियों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाए, साथ ही इसमें शिक्षा की गुणवत्ता में भी असामनता होने की बात कही गयी है। उन्होंने असमानता के कारण बताये जैसे स्कूलों में ढांचागत सुविधाओं की कमी, शिक्षा में बढ़ता हुआ निजीकरण व बाजारीकरण, विद्यालयों की कमी आदि। शिक्षा में गुणवत्ता की बात करते हुए वह कहती हैं कि इन जातियों का सामाजिक व आर्थिक स्तर भिन्न होने के कारण अच्छी शिक्षा की सुविधा प्राप्त नहीं हो रही है। जिसके कारण शिक्षा की गुणवत्ता में भी असमानता उत्पन्न हो रही है।
अतः उपरोक्त अध्ययन के बाद यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि सीमांत वर्ग को स्कूली पाठ्यचर्या, आरक्षण इत्यादि में आज भी पूर्ण भागीदारी नहीं मिल पाई है। सरकार द्वारा बनाये गए कानून नीतियाँ, आयोग समाज में समानता लाने की दृष्टि से अपूर्ण है और इनका सुचारू रूप से क्रियान्वयन न हो पाने की वजह से परिस्थिति और भी गम्भीर हो रही है।
संविधान निर्माताओं ने भारत की प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए मूल अधिकारों के तहत सामाजिक समानता के स्थान पर सामाजिक समता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 14-18 में रखा था। सामाजिक समानता का अर्थ है समाज के सभी वर्ग के लोगों को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान अवसर प्रदान करना। सामाजिक समता का अर्थ है समाज में व्याप्त विषमताओं को खत्म करना और पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करना, जिससे वे समाज के अन्य विकसित वर्गों के समकक्ष आ सके और समाज के सभी वर्गों में एकरूपता आ सके। आज भी सीमांत वर्ग में प्रथम पीढ़ी के शिक्षार्थी, शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। उच्च वर्ग चाहता है ये हमेशा निम्न स्तर के व्यक्ति ही बने रहे क्योंकि अगर ये विकसित हो गये तो फिर हमारी वो हैसियत व सम्मान नहीं रह जाएगा, जो अभी तक बना हुआ है। अमत्र्यसेन के अनुसार जैसे अमीर और अमीर होता जाता है तथा गरीब और गरीब होता जाता है। वैसे ही समाज में असमानता से और असमानता बढ़ती ही चली जाती है। समाज की ये असमानताएँ पिछड़ी हुई जातियों को हमेशा पिछड़ने पर मजबूर करती हैं। भारत में जो अशिक्षा, बेरोजगारी, खराब स्वास्थ्य जैसी समस्याएँ हैं वो सब इस असमानता की वजह से ही है।
कोठारी आयोग (1964-66) ने ‘समान स्कूल व्यवस्था’ की सिफारिश की थी। कोठारी आयोग ने कहा कि ‘‘जब तक हिन्दुस्तान में ऐसी स्कूल प्रणाली स्थापित नहीं होगी जिसके जरिये हर बच्चे को चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र या लिंग का हो, समान गुणवत्ता वाली शिक्षा दी जा सके, तब तक हिन्दुस्तान में सौहार्द और बराबरी का रिश्ता स्थापित नहीं हो पाएगा।’’ हम सब यह भली-भांति जानते हैं कि यह सिफारिश सिद्धान्त बनकर रह गई व कभी व्यवहारिक रूप नहीं ले पाई। भारत में शिक्षा ‘समान स्कूल प्रणाली’ में प्रदान नहीं की जाती है। बल्कि शिक्षा व्यक्ति अपनी सामाजिक-आर्थिक पहचान के अनुरूप प्राप्त करता है। जैसे गरीब आदमी है तो वो मोटा चावल खाता है, अमीर आदमी है तो वो बासमती चावल खाता है, ठीक वैसे ही गरीब आदमी का बच्चा है तो वह सरकारी स्कूल में पढ़ेगा व अमीर आदमी का बच्चा है तो वो प्राईवेट स्कूल में पढ़ेगा। सरकारी स्कूल में भी कई स्तर हैं, उनमें भी बच्चे अपने सामाजिक-आर्थिक स्तर के अनुरूप प्रवेश पाते हैं, जैसे दिल्ली, नगर निगम विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय, सैनिक विद्यालय (इसमें थल सेना, वायु सेना, नौ-सेना तीनों के अलग-अलग)।
सरकार सबको शिक्षा प्रदान करने के संबंध में एक वक्तव्य देती है कि हम तो सबको शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं किन्तु गरीब माँ- बाप अपने बच्चों को स्कूलों में भेजते ही नहीं है। वे अपने बच्चों को स्कूलों में पढ़ाने की अपेक्षा काम करवाने में अधिक रूचि रखते हैं। प्रोब रिपोर्ट 1996 यह साबित करती है कि माँ बाप अपने बच्चों को पढ़ाने के बहुत इच्छुक है किन्तु शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त कमियों की वजह से वे अपने बच्चों का रुख शिक्षा से विमुख करके काम की तरफ लगाते हैं।
सरकार कहती है कि हम सबको सरकारी नौकरी प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान करते हैं। जब सभी बच्चों की शिक्षा एक समान परिवेश में हुई ही नहीं है तो उन्हें नौकरी प्राप्त करने के एक समान अवसर कैसे मिल जायेंगे। जैसे एक बच्चा सरकारी स्कूल या गैर-सरकारी संगठन ;छण्ळण्व्ण्द्ध के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहा है, वह ‘काॅन्वेन्ट पब्लिक स्कूल’ के बच्चे के सामने प्रतियोगिता में कैसे ठहर सकता है; क्योंकि दोनों को दी जाने वाली शिक्षा के स्तर में जमीन-आसमान का अंतर है। सरकार ने शैक्षिक ढांचे की रचना इस प्रकार से की कि इसमें पब्लिक स्कूल एवं सरकारी स्कूल दोनों के लिए एक जैसी परीक्षा प्रणाली विकसित की है। जाहिर है कि पब्लिक स्कूल के छात्रों का परीक्षा परिणाम व सरकारी स्कूल के परीक्षा परिणाम के बनिस्वत् उच्च ही आता है, क्योंकि दोनों स्कूलों के छात्रों को मिलने वाली सुविधाओं में जमीन-आसमान का अंतर है। सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी है, सरकार की यह नीति अपने आप में एक विषमता प्रधान नीति है। इस संदर्भ में कृष्ण कुमार लिखते हैं, ‘‘असल में तो हमारी परीक्षा प्रणाली जनता को धोखा देती आ रही है क्योंकि वह अपने अन्दर मौजूद गहरे भेदभावों को छिपाती है। जिससे किसी उपेक्षित सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले एक गरीब मिल-मजदूर के बच्चे को अच्छे स्तर के सुविधा सम्पन्न पब्लिक स्कूलों के छात्रों के विरुद्ध प्रतियोगिता के दौरान अपनायी जाने वाली कथित सम्पूर्ण समानता, झूठी चमक में बखूबी छिपकर रह जाती है। लेकिन तथ्य को जानने के लिए बहुत गहरी खोज की जरूरत नहीं कि अधिकतर असफल छात्र वंचित वर्गों से आते हैं।
तपस मजूमदार समिति (1999) ने अनुमान लगाया था कि 6-14 वर्ष आयु समूह के जो आधे बच्चे स्कूल से बाहर हैं, उन्हें स्कूल में लाने के लिए कितना खर्च होगा। इस रिपोर्ट के अनुसार सभी बच्चों को स्कूल की सुविधा देने के लिए अगले 10 वर्षों में कुल मिलाकर 37 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त लगाने होंगे। इसका अर्थ है कि प्रतिवर्ष औसतन इस मद में जो भी खर्च हो रहा है इसके अतिरिक्त 14,000 करोड़ रुपये लगाने होंगे। हमारे जी.डी.पी. की यह राशि प्रति वर्ष मात्र 0.78 प्रतिशत यानि 1 प्रतिशत से भी कम है।
सैकिया समिति ने अपनी रिपोर्ट में सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने एवं इसे मूल अधिकार बनाने की बात कही। समिति के अनुसार बच्चों को शिक्षा प्रदान करने हेतु राज्य सरकारों को अपने सालाना बजट में 6 हजार करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी करनी चाहिए। नवीं पंचवर्षीय योजना के हिसाब से सभी प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक स्कूलों में आॅपरेशन ब्लैकबोर्ड को लागू करवाया जाना चाहिए। इन दोनों समितियों द्वारा दी गई अनुशंसाओं/ सिफारिशों को सरकार अभी तक अमल में नहीं लाई है। शैक्षिक व्यवस्था अपनी उसी स्थिति में कमजोर दिखाई देती है जैसी इन समितियों के गठन से पूर्व थी।
83वें संशोधन विधेयक में अनुच्छेद 21(क) में कुछ शब्द जोड़ दिये गये हैं। पुराने विधेयक ने अनुच्छेद 21(क) में 6-14 आयु समूह के बच्चों को शिक्षा का अधिकार बिना किसी शर्त के दिया था। इसी जगह नया विधेयक प्रस्तावित करता है कि शिक्षा का मूल अधिकार केवल 6-14 वर्ष के आयु समूह के बच्चों को ही मिले। इसके मायने हैं कि 0-6 वर्ष के आयु समूह में आने वाले लगभग 16 करोड़ (जनगणना के अनुसार) शिक्षा का मौलिक अधिकार खो देंगे जो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में उन्नीकृष्णन बनाम आन्ध्र प्रदेश सरकार के मामले (1993) में दिया था।
प्रोब ;च्तवइमद्ध हल सर्वे अन्वेषण ;च्नइसपब त्मचवतज वद ठंेपब म्कण्द्ध प्रारम्भिक शिक्षा पर एक सार्वजनिक रिपोर्ट का मुख्य आधार एक व्यापक फील्ड सर्वेक्षण था। जिसे सितम्बर से दिसम्बर 1996 की अवधि में पूरा किया गया था। इस सर्वेक्षण में बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में रेन्डम ढंग से चुने गए 234 गांवों में उपलब्ध समस्त स्कूलों में सुविधाओं तथा 1376 परिवारों को शामिल किया गया था। जिन पांच राज्यों का सर्वेक्षण किया गया है उनमें भारत की 40 प्रतिशत जनसंख्या रहती है और स्कूल न जाने वाले बच्चों में अधिक से अधिक यहीं हैं। प्रोब सवेक्षण के अनुसार, ‘‘सबके लिए प्रारंभिक शिक्षा’ प्रदान करने में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं।
1. प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करना सबका मौलिक अधिकार है।
2. बहुत व्यापक स्तर पर जनता शिक्षा प्राप्त करने की मांग करती है।
3. लोग शिक्षा को मानव पंूजी के रूप में मानते हैं।
4. शिक्षा प्राप्त करने से सीखने का आनन्द मिलता है।
5. शिक्षा से व्यक्तिगत खुशहाली मिलती है।
6. शिक्षा सामाजिक प्रगति करने में सहायक है।
7. सबके लिए प्रारम्भिक शिक्षा सामाजिक न्याय की आवश्यकता है।
प्रोब सर्वे के अनुसार, माँ, बाप लड़की की अपेक्षा लड़के को अधिक ऊँची शिक्षा दिलाने के पक्ष में हैं। प्रोब सर्वे में ये स्पष्ट किया कि स्कूल में ढांचागत सुविधाओं की कमी रहती है। प्रोब गांव में 12 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में एक अध्यापक है। प्रोब आंकड़ों के आधार पर साल में केवल 150 दिन पढ़ाई होती है। दलित बच्चों के साथ अध्यापकों एवं सवर्ण छात्रों द्वारा जातीय भेदभाव किया जाता है। इसी तरह से विद्यालय में उपर्युक्त सुविधाओं की कमी व निम्न जातियों के साथ किया जाने वाला भेदभाव शिक्षा में समानता के प्रश्न को फिर से उजागर करता है। प्रोब सर्वे में अध्यापक के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में बताया गया जिसमें पाठ्यक्रम पूरा करने का प्रशासनिक दबाव, सरकार द्वारा अध्यापकों को पढ़ाई से ध्यान हटाने वाले कार्यों में लगाया जाना जैसे- जनगणना, पशु गणना, गरीबी उन्मूलन योजनाएं, स्वास्थ्य कार्यक्रम, साक्षरता अभियान एवं जनगणना इत्यादि शामिल है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा- 2000ः
विद्यालयी शिक्षा के लिए छब्थ्.2000 शिक्षा को सामाजिक समरसता स्थापित करने का महत्वपूर्ण साधन मानता है। शिक्षा के सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भों की बात करते हुए यह कहता है कि-
ऽ यह माना जाता है कि निर्धारित कार्यों के लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा सामाजिक समरसता स्थापित करने की दृष्टि से यथेष्ट गुणात्मक तथा व्यापक शिक्षा एक बहुत ही शक्तिशाली साधन है। कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य है- पंथनिरपेक्षता लोकतंत्र, समानता, बंधुत्व आदि।
ऽ सीमांत वर्ग (निर्बल समुदाय) जिनमें अनसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाएँ, विकलांग व अल्पसंख्यक आदि शामिल हैं, के उत्थान व सबलीकरण में शिक्षा अपनी अहम भूमिका अदा कर सकती है।
ऽ पाठ्यचर्या को समानता से जोड़ते हुए यह कहती है कि पाठ्यचर्या को इस प्रकार की शिक्षा की रचना करनी होगी जो असमानता के विरुद्ध संघर्ष कर सके और शिक्षार्थी को सामाजिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सके। पाठ्यचर्या में अन्तर्निहित समानता की चेतना अनिवार्य रूप से उत्पन्न करते हुए उन पूर्वाग्रहों और जटिलताओं को समाप्त करे जो सामाजिक परिवेश और जाति-विशेष में जन्म लेने से उन्हें सौंपी जा रही है।
ऽ यह सुविधा वंचित समूहों के विद्यार्थियों की शिक्षा की बात करते हुए उनके सामाजिक सन्दर्भों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित शिक्षा पद्धति में आवश्यक परिवर्तन करने तथा इन समूहों की भाषा की विशिष्टता को ध्यान में रखने पर बल देते हुए कहती हैं कि- ‘‘एक समरसता पूर्ण समाज के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की विशेष शैक्षिक जरूरतों को ध्यान में रखकर सामाजिक, सांस्कृतिक आयामों की चिन्ता करना आवश्यक है। पाठ्यचर्या का संदर्भीकरण पाठ्य सामग्री के माध्यम से ही संभव है। सुविधा वंचित समूहों के मौलिक अधिकारों का पूरी चेतना के साथ पाठ्यचर्या में समावेश करना होगा। सभी को शैक्षिक अवसर प्रदान करने के लिए यह दूरस्थ शिक्षा की व्यवस्था का भी समर्थन करता है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 ;छब्थ् 2005द्ध वंचित वर्गों की शिक्षा के अन्तर्गत सामाजिक सन्दर्भ को पाठ्यचर्या में सम्मिलित करने, पाठ्यचर्या में समानता के तत्व सम्मिलित करने, स्कूल व कक्षा के वातावरण को उस प्रकार से प्रेषित करने व समावेशन की नीति पर बल देती है। शिक्षा के सामाजिक सन्दर्भ में छब्थ् में कहा गया है कि ग्रामीण व शहरी गरीब वर्गों तथा धार्मिक एवं अन्य जातीय अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति/जनजाति समुदाय की लड़कियाँ शिक्षा के क्षेत्र में सर्वाधिक असुरक्षित होती हैं। इस प्रकार भारत में शिक्षा का सामाजिक सन्दर्भ अनेक चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है, जिनको पाठ्यचर्या की रूपरेखा द्वारा परिकल्पना व व्यवहार दोनों रूपों में संबोधित किया जाना चाहिए। इस दस्तावेज में इन चुनौतियों से निपटने के लिए अनेक तरीके सुझाए गए हैं। जिनमें प्रमुख हैं- ज्ञान की अवधारणा को विस्तृत करना, ताकि ज्ञान और अनुभव के नए क्षेत्र उनमें शामिल हो सके, शैक्षिक कार्यों के चयन में समावेशी रवैया, शिक्षा शास्त्रीय अभ्यास जो सहभागिता को बढ़ावा देने के विषय में सजग हो, आत्मविश्वास तथा आलोचनात्मक जागरूकता का विकास तथा पाठ्यचर्या से जुडे़ निर्णयोें के बारे में समुदाय से बातचीत करना, शिक्षा शास्त्र और भाषा के विषय में छब्थ् में कहा गया है कि ऐसा शिक्षा-शास्त्र होना चाहिए जो लिंग, वर्ग जाति व भूमंडलीय असमानताओं के प्रति संवेदनशील हो व व्यक्तिगत तथा सामूहिक अनुभवों को भी समाहित करता हो। भाषा के अन्तर्गत यह राज्यों की उस व्यवस्था का समर्थन करता है जिसमें आदिवासी बच्चों को उनकी घरेलू भाषा में शिक्षा दी जाने की व्यवस्था की गई है। साथ ही यह बहुभाषा शिक्षा व्यवस्था पर जोर देता है।
समावेश की नीति पर बल देते हुए यह कहता है कि समावेशन की नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की जरूरत है। स्कूलों को ऐसे केन्द्र बनाए जाएँ, जहाँ समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों की शिक्षा के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में सबसे ज्यादा फायदा मिले। बच्चों में समानता की भावना उत्पन्न करने तथा वंचित वर्गों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए यह स्कूल में सक्षम बनाने वाले वातावरण के पोषण की बात करता है- ‘‘स्कूलों का निष्पक्ष कक्षायी वातावरण हो, जिसमें विद्यार्थियों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार न हो और जाति, प्रजाति और अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें अवसरों से वंचित न रखा जाये। सार्वजनिक स्थान के रूप में स्कूल में समानता, सामाजिक विविधता व बहुलता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए।’’ साथ ही यह बच्चों में लिंग जाति, धर्म एवं समुदाय की अस्मिता को लेकर आलोचनात्मक समझ बनाने की बात भी करता है। लेकिन क्या इस प्रकार की व्यवस्था सम्भव है जबकि आज भी समाज के लोग हाशिए पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनके पास खाने को ना भोजन है ना रहने को घर, तो इस प्रकार के दस्तावेजों की सार्थकता पर सदा प्रश्नचिन्ह लगा रहता है।
निष्कर्षः
शिक्षा लोकतंत्र की आत्मा है। सीमान्त वर्ग में कुपोषण, गरीबी, रहन-सहन का स्तर तथा निम्न सामाजिक दशाओं का मुख्य कारण शिक्षा की कमी है। शिक्षा की कमी के कारण ही सीमान्त वर्ग अंधविश्वासों से जकड़ा हुआ है। दूसरे लोगों द्वारा इनका शोषण हो रहा हैं इसे रोकने के लिए सीमान्त वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित होने की आवश्यकता है। शिक्षित होकर इन वर्गों के लोग अपनी उन्नति का मार्ग खोजने में समर्थ हो सकते हैं। सीमान्त वर्ग जो कि समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ है, इनमें शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ है। अभी भी विकास की ज्योति इन तक नहीं पहुंची है। इसके परिणामस्वरूप इन वर्गों में मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक पिछड़ापन बढ़ता चला गया है। अतः शिक्षा को लेकर यह वर्ग पूर्णतः उदासीन है तथा इनमें बड़े पैमाने पर शिक्षा के प्रति जागरुकता को लाने की आवश्यकता है। अपनी आर्थिक परेशानियों के चलते इन्होंने शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य केवल रोजगार को मान लिया है। इन्हें शिक्षा के अन्य उद्देश्यों से परिचित करना आवश्यक है।
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Received on 06.06.2018 Modified on 12.06.2018
Accepted on 27.06.2018 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2018; 6(2): 133-140 .